सऊदी अरब और पाकिस्तान ने एक नया रक्षा समझौता (Strategic Mutual Defence Agreement) किया है, जिसमें कहा गया है कि अगर किसी एक देश पर हमला होगा, तो दोनों देश मिलकर जवाब देंगे। यह समझौता इस समय हुआ है जब मध्य-पूर्व और दक्षिण एशिया दोनों में तनाव बढ़े हुए हैं। दोनों देश सुरक्षा सहयोग को बढ़ाने, मिलिट्री तकनीक साझा करने और संयुक्त रक्षा उपायों को सुदृढ़ करने की योजना बना रहे हैं।
समझौते पर सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने हस्ताक्षर किए। इन हस्ताक्षरों के बाद यह सवाल उठने लगा है कि क्या इस समझौते के बाद सऊदी अरब भारत-पाकिस्तान के किसी संघर्ष में सीधा हिस्सा ले सकता है? भारत इस समझौते को ध्यान से देख रहा है और राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की समीक्षा कर रहा है कि इस तरह का रक्षा गठबंधन क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को किस तरह प्रभावित करेगा।
इस समझौते से स्पष्ट है कि सऊदी अरब पाकिस्तान के साथ अपनी रक्षा नीति को औपचारिक रूप से मजबूत करना चाहता है। इससे पहले भी दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग रहा है, लेकिन यह पहला मौका है जब सेना के स्तर पर “आपसी रक्षा” की गारंटी ली गई है कि एक देश पर हमला है, तो दूसरा देश पीछे नहीं देखेगा। इसे रणनीतिक कूटनीति की एक बड़ी चाल माना जा रही है।
संभावित नतीजे: भारत, क्षेत्रीय संतुलन और सऊदी की भूमिका
भारत की प्रतिक्रिया मौजूदा समय में संयमित रही है। भारत सरकार कह रही है कि वह इस समझौते के असर को गंभीरता से देखेगी और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर सभी विकल्प खुले हैं। विदेश मंत्रालय ने यह स्पष्ट किया है कि भारत की नीति रहेगी कि क्षेत्रीय स्थिरता बनी रहे और किसी भी बाहरी गठबंधन को युद्ध-स्तर पर लिया जाना हो, तो उसकी स्थितियों और निहितार्थों पर विचार होगा।
यह समझौता इस समय आया है जब मध्य-पूर्व में नई सिक्योरिटी चुनौतियाँ उठ रही हैं और कुछ गल्फ देशों को लगता है कि पारंपरिक सुरक्षा साझेदारों पर भरोसा कम हो रहा है। सऊदी अरब इस दौर में सुरक्षा और कूटनीति की अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित कर रहा है। पाकिस्तान की ओर से यह कदम सुरक्षा चिंताओं, शोध एवं खुफिया सहयोग, और हथियारों के पूरक हिस्सों की साझा जरूरतों को पूरा करना है।
अगर कभी भारत-पाकिस्तान के बीच वास्तविक सैन्य संघर्ष होता है, तो यह समझौता सऊदी अरब को किसी स्थिति में मिलिट्री सहायता, इंटरसेप्टर या रणनीतिक समर्थन देने की बाध्यता उत्पन्न कर सकता है। हालांकि, यह पूरी तरह तय नहीं कि समझौते में कितनी सीमा तक “युद्ध में शामिल होना” शामिल है, क्योंकि अक्सर ऐसे समझौते में “रक्षा प्रवर्तन,” “मिलिट्री सहयोग” और “साहायता” जैसे शब्द शामिल होते हैं, पर युद्ध-स्तर की भागीदारी स्पष्ट नहीं होती।
महाराष्ट्र या पंजाब नहीं, बल्कि विदेश नीति, रणनीतिक रक्षा साझेदारियाँ, अंतरराष्ट्रीय दबाव, और क्षेत्रीय सुरक्षा गठबंधन ये सभी विषय अब भारत के लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। भारत को diplomatically तैयार रहने की जरूरत है, अपने सीमाओं, एयर बेस और रक्षा प्रणालियों को मजबूत करने की जरूरत है, और अपने रणनीतिक साझेदारों से समर्थन सुनिश्चित करना होगा।