करवा चौथ का व्रत हर साल कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत विशेष रूप से विवाहित महिलाओं द्वारा रखा जाता है। परंपरा के अनुसार इस व्रत का उद्देश्य केवल पति की लंबी उम्र और सुखद दांपत्य जीवन की कामना करना है। लेकिन धार्मिक ग्रंथों और पुराणों में इसके पीछे और भी गहरा महत्व बताया गया है।
किस देवता की होती है पूजा?
अधिकांश लोग मानते हैं कि करवा चौथ केवल चंद्रमा और पति की लंबी उम्र की कामना से जुड़ा है। जबकि सच यह है कि इस व्रत में भगवान गणेश जी के कपर्दि स्वरूप की पूजा का विशेष महत्व है।
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कपर्दि स्वरूप का अर्थ है गणेश जी का वह रूप जो विवाहिता महिलाओं के लिए सौभाग्य और दीर्घायु का प्रतीक माना जाता है।
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महिलाएं इस दिन गणेश जी के साथ माता पार्वती और भगवान शिव का भी स्मरण करती हैं।
करवा चौथ की पूजा विधि
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सवेरे स्नान करके व्रत का संकल्प लिया जाता है।
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पूरे दिन निर्जला उपवास किया जाता है।
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शाम को महिलाएं सुहाग सामग्री और करवा (मिट्टी का पात्र) सजाती हैं।
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गणेश जी के कपर्दि स्वरूप, माता पार्वती और शिवजी की पूजा की जाती है।
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कथा श्रवण के बाद चंद्रमा को अर्घ्य देकर व्रत खोला जाता है।
पुराणों में करवा चौथ का उल्लेख
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स्कंद पुराण और व्रत कथाओं में करवा चौथ का विशेष महत्व बताया गया है।
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इसमें कहा गया है कि इस व्रत से दांपत्य जीवन में सुख-शांति आती है और परिवार पर आने वाले संकट टल जाते हैं।
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गणेश जी की पूजा करने से व्रत का फल अनेक गुना बढ़ जाता है और सौभाग्य बना रहता है।
करवा चौथ का इतिहास और मान्यता
लोककथाओं के अनुसार, करवा नामक एक पतिव्रता स्त्री ने अपने पति की रक्षा के लिए यमराज को तक चुनौती दी थी। उनकी सच्ची श्रद्धा से प्रभावित होकर यमराज ने उनके पति को जीवनदान दिया। तभी से यह व्रत करवा चौथ के नाम से लोकप्रिय हुआ।
इसके अतिरिक्त प्राचीन कथाओं में यह भी उल्लेख है कि माता पार्वती ने स्वयं यह व्रत किया था और तभी से यह सुहागिन स्त्रियों के लिए अटल सौभाग्य का प्रतीक माना जाने लगा।
करवा चौथ और आधुनिक परंपरा
आज के समय में यह व्रत न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बन गया है। महिलाएं सजधज कर एक-दूसरे के साथ मिलकर पूजा करती हैं। पति भी पत्नी के प्रति प्रेम और सम्मान व्यक्त करते हैं।